श्रीश्रीगीतामाहात्म्यम्
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

ऋषिरुवाच
गीतायाश्चैव माहात्म्य यथावत सूत मे वद।
पुरा नारायणक्षेत्रे व्यासेन मुनिनोदितम्॥1।
शौनक बोले-हे सूत ! पूर्वकाल में नैमिषारण्य में (नारायण-क्षेत्र में) व्यास मुनि ने जो गीता का महात्म्य-वर्णन किया था, वह यथावत् मुझसे कहो ॥1॥
सूत उवाच
भद्रम् भगवता पृष्टम् यद्धि गुप्ततमं परम।
शक्यते केन तद्वक्तुम् गीतामाहात्म्यमुत्तमम्॥2॥
          सूत बोले- हे भगवन ! आपने अच्छा प्रश्न किया, यह परम गुह्यतम है। इस गीतामहात्म्य को सुन्दररूप से कहने में कौन समर्थ है।2।
कृष्णो जानाति वै सम्यक् किंचिकुन्तीसुत: फलम्।
व्यासो वा व्यासपुत्रो वा याज्ञवल्क्योऽथ मैथिलः।।3।।
श्री कृष्ण इसको सम्यक, रूप से जानते हैं। कुन्ती पुत्र अर्जुन, वेदव्यास और उनके पुत्र शुकदेव, याज्ञवाल्क्य मिथिलाधिपति जनक भी इसके फल को किंचित जानते हैं।3।
अन्ये श्रवणतः श्रृत्वा लेशं संकीर्तयन्ति च।
तस्मात्किंचिद्वदाम्यत्र व्यासस्यास्यान्मया श्रुतम्॥4॥
इनके अतिरिक्त दूसरे लोग इसका फल सुनकर इसके महात्म्य का लेशमात्र कीर्तन करते हैं।मैंने भी वेदव्यास के मुख से कुछ श्रवण किया है, अतएव इसे आपके सामने कहता हूँ।4।
सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दन:।
पार्थो वत्स: सुधीर्भोक्ता दुग्धम् गीतामृतम् महत्॥5॥
समस्त उपनिषद मानो गौ स्वरूप हैं और उस गौ को दुहने वाले गोपाल नन्दन श्री कृष्ण हैं।पार्थ उस गौ के वत्स स्वरूप हैं( वत्स जैसे अपनी माता के दुग्ध को पानकर परितृप्त हुए थे और सदा के लिए उनकी भवक्षुदा मिट गयी थी।) गीतारूपी अमृत ही उपनिषद गौ का सुस्वादु दुग्ध है। इस गीता मृत-दुग्ध को सुधीगण पान करते हैं।5।
                   सारथ्यमर्जुनस्यादौ कुर्वन् गीतामृतम् ददौ।
लोकत्रयोपकाराय तस्मै कृष्णात्मने नमः॥6।
अर्जुन के सारथी बनने का व्रती होकर जिसने लोकत्रय के उपकारार्थं इस गीतामृत का दान किया उस परमात्मास्वरूप श्री कृष्ण को नमस्कार॥6।
संसारसागरं घोरं तत्तुर्मिच्छति यो जनः।
गीतानावं समासाद्य पारं यातु सुखेन सः।।7।।
           जो मनुष्य इस घोर संसार-सागर को पार करने की इच्छा करता है,वह इस गीतारूपी  तरणी का आश्रय लेकर अनायास ही संसार –सागर के पार पहुँच सकता है।7।
गीताज्ञानं श्रुतं नैव सदैवाभ्यासयोगतः।
मोक्षमिच्छति मूढात्मा याति बालकहास्यताम्।।8।।
जो आदमी गीताज्ञान का सदा श्रवणाभ्यास किए बिना मोक्षाभिलाषी होता है वह मूढात्मा बालकों के द्वारा उपहास का पात्र बनता है।8।
ये श्रृण्वन्ति पठन्त्येव गीताशास्त्रमहर्निशम्।
न ते वै मानुषा ज्ञेया देवारूपा न संशयः।।9।।
जो रात-दिन गीताशास्त्र का श्रवण तथा अध्ययन करते हैं उनकी मनुष्य नहीं देवता जानना चाहिए, इस विषय में कुछ भी संशय नहीं हैं।9।
गीता ज्ञानेन सम्बोधम् कृष्ण: प्राहार्जुनाय वै।
भक्तितत्वं परं तत्र सगुणम् चाथ निर्गुणम् ॥10॥
            श्री कृष्ण ने गीताज्ञान के उपदेश के द्वारा अर्जुन को तत्वज्ञान की शिक्षा दी। उसमें सगुण और निर्गुण भक्ति-तत्व की व्याख्या की गयी है।10।
सोपानाष्टादशैरेवं भुक्तिमुक्तिसमुच्छितै:
क्रमशश्चित्तशुद्धि: स्यात् प्रेमभक्त्यादिकर्मणि॥11
               भक्तिमुक्त-मिश्रित गीता के अष्टादश रूप अध्यायरूप अष्टादश सोपान के द्वारा क्रमशः चित्तशुद्धि प्राप्त करके प्रेम भक्ति आदि कर्मो में अधिकतर उन्नति प्राप्त होती है।11।
साधोर्गीताम्भसि स्नानं संसारमलनाशनम्।
श्रद्धाहीनस्य तत्कार्यं हस्तिस्नानं वृथैव तत् ॥12॥
               गीतारूपी सलिल में स्नान करके साधुओं का संसारमालिन्य दूर हो जाता है, परन्तु जो श्रद्धाहीन हैं उनका गीता-सलिल अवगाहन हस्तिस्नान के समान व्यर्थ हो जाता है।12।
गीतायाश्च न जानाति पठनं नैव पाठनम्।
स एव मानुषे लोके मोघकर्मकरो भवेत्।13।।
जो आदमी गीताशास्त्र का पठन-पाठन करना नहीं जानता, मनुष्य-लोक में उसके समस्त कार्य व्यर्थ हो जाते हैं।13।
यस्माद्गीतां न जानाति नाधमस्तत्परो जन:।
धिक् तस्य मानुषम् देहं विज्ञानं कुलशीलतां॥14॥
गीताशास्त्र से जो अनभिज्ञ है उसकी अपेक्षा नराधम दूसरा कोई इस जगत में नहीं है।उसके मनुष्य देह,धारण,ज्ञान  और कुलशील को धिक्कार है।14।
गीतार्थं न विजानाति नाधमस्तत्परो: जन:।
धिक् शरीरं शुभं शीलं विभवं तद्गृहाश्रमम्॥।15॥
जो आदमी गीता का अर्थ नहीं जानता, उसकी अपेक्षा नराधम दूसरा कोई नहीं है। उसकी देह,कल्याण, शीलता,गृहस्थाश्रम और वैभव आदि को धिक्कार है।15।
गीताशास्त्रम् न जानाति नाधमस्तत्परो जनः।
धिक् प्रालब्धम् प्रतिष्ठाञ्च पूजां मानं महत्तम॥16॥
       गीताशास्त्र से जो अवगत नहीं उसकी अपेक्षा अधम दूसरा कोई नहीं है। उसके प्रारब्ध कर्म और प्रतिष्ठा को धिक्कार है। उसकी पूजा, मान और महत्व को धिक्कार हैं।16।
गीताशास्त्रे मतिर्नास्ति सर्वं तन्निष्फलं जगु:।
धिक् तस्य ज्ञानदातारं व्रतं निष्ठाम् तपो यश:॥17॥
गीताशास्त्र में जिसकी मति नहीं है अर्थात उसमें जिसकी बुद्धि का प्रवेश नहीं उसका सब कुछ निष्फल है। उसके ज्ञानदाता को धिक्कार, उसकी व्रतनिष्ठा,तपस्या और यश को धिक्कार है !।17।
                गीतार्थपठनं नास्ति नाधमस्तत्परो जन: ।
गीतागीतं न यज् ज्ञानं  तद् विद्यासुरसम्मतम्॥18॥
जो आदमी गीता का पठन नहीं करता, उसकी अपेक्षा नराधम और कोई नहीं हैं। जो ज्ञान गीताशास्त्र में लिखा नहीं है उसको आसुर ज्ञान जानो।18।
तन्मोघं धर्मरहितं वेदवेदान्तगर्हितम।
तस्माद्धर्ममयी गीता सर्वज्ञानप्रयोजिका ।
सर्वशास्त्रसारभूता विशुद्धा सा विशिष्यते ।।19॥
वह ज्ञान बिल्कुल ही निष्फल है और धर्मविरहित तथा वेदवेदान्त-विनिन्दित है। अतएव धर्ममयी गीता का आश्रय लो। वह सर्वज्ञान-प्रदायिनी और सर्वशास्त्र की सारभूता है।गीता के समान विशुद्ध और कुछ नहीं हैं, इसलिए सर्वशास्त्रों की अपेक्षा यह विशिष्ट है।
योधीतें विष्णुपर्वाहे गीतां श्रीहरिवासरे।
स्वप्न जाग्रन् चलंस्तिष्ठन् शत्रुभिर्न स हीयते॥20॥
विष्णुपर्व एकादशी में जो गीता का पाठ करता है, वह निद्रा, जागरण, गमन,उपवेशन किसी भी अवस्था मेंशत्रु द्वारा त्रासित नहीं होता।21।
                     शालग्रामे शीलायां वा देवागारे शिवालये।
तीर्थे नद्याम्  पठन्  गीतां सौभाग्यम् लभते ध्रुवम्॥।21॥
अथवा जो आदमी शालग्राम शिला के पास अथवा देवालय में, शिवालय में, किसी तीर्थ स्थान में या नदी के तट पर गीता पाठ करता है वह निश्चय ही सौभाग्य को प्राप्त करता है।12।
देवकीनन्दन: कृष्णो गीतापाठेन् तुष्यति ।
यथा न वेदैर्दानेन यज्ञतीर्थव्रतादिभि:॥22॥
देवकी नन्दन श्री कृष्ण गीतापाठ से जैसा परितुष्ट होते हैं,वैसा वेदाध्ययन, दान, यज्ञ, तीर्थ सेवा तथा व्रतादि के अनुष्ठान के द्वारा नहीं होते।22।
गीताधीता च येनापि भक्तिभावेन चेतसा।
वेदशास्त्रपुराणानि तेनाधीतानि सर्वश: ॥23॥
जो आदमी भक्तियुक्त चित्त से गीता का अध्ययन करता है, उसको वेदशास्त्र तथा पुराणादि के अध्ययन से प्राप्त होने वाले सब फल प्राप्त होते हैं।23।
योगस्थाने सिद्धपीठे शिलाग्रे सत्सभासु च।
यज्ञे च विष्णुभक्ताग्रे पठन् सिद्धि परां लभेत्॥24॥
योग-स्थान में, सिद्ध-पीठ में, शालग्राम-शिला के सामने,सज्जनों की सभा में,यज्ञ क्षेत्र में अथवा भगवद्भक्त के समीप जो गीतापाठ करते हैं वे परम सिद्धि को प्राप्त करते हैं।24।
गीतापाठञ्च श्रवणम् यः करोति दिने दिने।
क्रतवो वाजिमेधाद्या: कृतास्तेन सदक्षिणा: ॥25॥
जो प्रतिदिन गीता का पाठ या श्रवण करते हैं, जानना चाहिए कि उन्होने मानो दक्षिणा के साथ अश्वमेधादि यज्ञ कर लिए।25।
     यः श्रृणोति च गीतार्थं कीर्तयत्येव यः परम्।
श्रावयेच्च परार्थं वै स प्रयाति परं पदम्।।26।।
             जो गीतार्थ श्रवण या कीर्तन करते हैं अथवा दूसरों को सुनाने के लिए गीता की व्याख्या करते हैं, वे परमपद को प्राप्त होते हैं।26।
गीताया: पुस्तकं शुद्ध योर्पयत्येव सादरात्।
विधिना भक्तिभावेन तस्य भार्या प्रिया भवेत्॥27॥
जो भक्ति के साथ विधिपूर्वक सादर विशुद्ध गीता-पुस्तक दान करते हैं,उनकी भार्या प्रिया होती हैं।27।
यश: सौभाग्यमारोग्यं लभते  नात्र संशय:
दयितानां प्रियो भूत्वा परमं सुखमश्नुते॥28॥
वे यश, सौभाग्य और आरोग्य प्राप्त करते हैं और स्नेही लोगों के प्रिय होकर परम सुख को प्राप्त होते हैं।इसमें कोई सन्देह की बात नहीं है।28।
अभिचारोद्भवं दुःखं  वरशापागतञ्च यत्।
नोपसर्पति तत्रैव यत्र गीतार्चनं गृहे॥29॥
जिस घर में गीता की अर्चना होती है, वहाँ अभिचार या अभिशापादि-जनित  किसी प्रकार का दुःख नहीं आ सकता।29।
तापत्रयोउद्भवा पीड़ा नैव व्याधिर्भवेत्क्वचित्।
न शापो नैव पापञ्च दुर्गति नरकं न च ॥30॥
विस्फोटकादयो देहे न बाधन्ते कदाचन
लभेत् कृष्णपदे दास्यं भक्तिञ्चाव्यभिचारिणीम् ॥31॥
तापत्रय से उत्पन्न पीड़ा, व्याधि, अभिशाप, पाप, दुर्गति या नरक-यन्त्रणा उनको नहीं भोगनी नहीं पड़ती। उनके शरीर में विस्फोटादि व्याधि उत्पन्न नहीं होती। वह कृष्ण-पद में दास्य और अव्यभिचारिणी भक्ति प्राप्त करते हैं।30,31
जायते सततं सख्यं सर्वजीवगणै: सह।
प्रारब्धम् भुञ्जतो वापि गीताभ्यासरतस्य च॥32॥
स मुक्त: स सुखी लोके कर्मणा नोपलिप्यते।
महापापातिपापानि गीताध्यायी करोति चेत्
न किंचित् स्पृश्यस्पर्शजं तथा॥33॥
गीताभ्यास में रत मनुष्य की सभी जीवों के साथ सख्यता प्राप्त होती है। वह प्रारब्ध का भोग करता हुआ भी मुक्त और सुखी कहा जा सकता है, क्यों कि किसी कर्म द्वारा आबद्ध नहीं होता। गीताध्यायी यदि महापाप और अति पाप भी करे तो पद्मपत्रस्थ जल के समान वह उसको स्पर्श नहीं कर सकता।32,33
अनाचारोद्भवं पापं अवाच्यादिकृतं च यत्।
अभक्ष्यभक्षजं दोषमस्पृश्यस्पर्शजं तथा॥34॥
ज्ञानाज्ञानकृतं नित्यमिन्दियैर्जनितञ्च यत्।
तत्सर्वं नाशमायाति गीतापाठेन तत्क्षणात्॥35॥
अनाचारजनित और अवाच्य भाषणजनित सारे पाप,अभक्ष्य-भक्षणजनित तथा अस्पृश्यर्श जनित दोष, ज्ञानाज्ञानकृत अथवा इंद्रियजनित सारे दोष गीता पाठ के द्वारा तत्क्षण नष्ट हो जाते हैं।34,35
सर्वत्र प्रतिभोक्ता च प्रतिगृह्य स सर्वश:।
गीतापाठम् प्रकुर्वाणो न लिप्यते कदाचन ॥36॥
सर्वत्र भोजन और सर्वत्र प्रतिग्रह करने पर भी गीतापाठ करने वालों को वे पाप लिप्त नहीं कर सकते।36।
रत्नपूर्णाम् महीं सर्वां प्रतिगृह्याविधानतः।
गीतापाठेन चैकेन शुद्धस्फटिकवत् सदा ॥37॥
अविहित भाव से (शास्त्र विधि का उल्लंघन करके) रत्नपूर्णा पृथ्वी का परिग्रह करके भी एकमात्र गीता पाठ के द्वारा विधौत-पाप होकर, मनुष्य स्वच्छ स्फटिक के समान शुद्ध हो जाता है।37।
यस्यान्त:करणम् नित्यं गीतायां रमते सदा।
स साग्निक: सदा जापी क्रियावान स च पण्डित:॥38॥
दर्शनीय: स धनवान स योगी ज्ञानवानपि।
स एव याज्ञिको याज्ञी सर्ववेदार्थदर्शक: ॥39॥
जिनका अन्तःकरण सदा गीता में रमण होता है, वही साग्निक है,वही जापक है,वही उपासक है, वही क्रियावान है, वही पण्डित है, वही दर्शनीय है, वही धनवान है,वही योगी है, वही ज्ञानवान है, वही याज्ञिक है, वही याचक है, वही सर्ववेदार्थदर्शी है।।38,39
गीताया: पुस्तकं यत्र नित्यपाठश्च वर्त्तते।
तत्र सर्वाणि तीर्थानि प्रयागादीनि भूतले॥40॥
जहाँ नित्य गीता का पाठ होता है, प्रयागादि पृथ्वी के समस्त तीर्थ वहाँ विद्यमान रहते हैं।40
निवसन्ति सदा देहे देहशेषेपि सर्वदा।
सर्वे देवाश्च ऋषयो योगिनो देहरक्षका: ॥41॥
उसके जीवनकाल में तथा देहावसान के बाद भी सारे देवता, ऋषि, योगी, उसका देह रक्षक होकर वास करते हैं।41।

गोपालो बालकृष्णोपि नारदध्रुवपार्श्वदै:।
सहायो जायते शीघ्रं यत्र गीता प्रवर्त्तते ॥42॥
जिसके घर नित्य गीतापाठ होता है,नारद, ध्रुव आदि पार्षदों के साथ बालकृष्ण उसके सहायक होते हैं।42।
यत्र गीताविचारश्च पठनं पाठनं तथा।
मोदते तत्र श्री कृष्णो भगवान राधिकासह ॥43॥
गीता शास्त्र का विचार, अध्ययन,अध्यापन जहाँ होता है। वहाँ भगवान श्री कृष्ण राधिका के साथ परमानन्द करते हैं।43।
श्री भगवानुवाच
गीता मे हृदयं पार्थ गीता मे सारमुत्तमम्।
गीता मे ज्ञानमत्युग्रं गीता मे ज्ञानमव्ययम्।।44
गीता मे चोत्तमं स्थानं गीता मे परमं पदम्।
गीता मे परमं गुह्यं गीता मे परमो गुरुः।।45
       श्री भगवान बोले-  गीता मेरा हृदय है , मेरा सार सर्वस्व है , मेरा अत्युग्र ज्ञान है तथा मेरा अव्यय ज्ञानरूप है , गीता मेरा उत्तम स्थान है ,मेरा परम पद है , मेरा परम रहस्य है तथा मेरा परम गुरु है |44,45
पीताश्रयेSहं तिष्ठामि गीता मे परमं गृहम्।
गीताज्ञानं समाश्रित्य त्रिलोकं पालयाम्यहम्॥46॥
             गीता के आश्रय से मैं अवस्थित हूँ,यह मेरा परम गृह है। गीता ज्ञान का आश्रय करके मैं त्रिलोक का पालन करता हूँ।46।
गीता मे परमा विद्या ब्रह्मरूपा न संशय:
अर्द्धमात्रा परा नित्यमर्वाच्यपदात्मिका॥47॥
गीता ब्रह्मरूपा है, अर्द्धमात्रा स्वरूपा है, अनिर्वाच्य- पदात्मिका का है, परमा विद्यारूपिणी है।47।
गीतानामानि वक्ष्यामि गुह्यानि  श्रणु पाण्डव
कीर्तनात् सर्वपापानि विलय यान्ति तत्क्षणात्॥48॥
                 हे पाण्डव, गीता के समस्त गुह्य नामों को कहता हूँ, श्रवण करो।48।
गंगा गीता च सावित्री सीता सत्या पतिव्रता ।
ब्रह्मावलिर्ब्रहमविद्या त्रिसंध्या मुक्तिगेहिनी ॥49॥
अर्द्धमात्रा चिदानन्दा भवघ्नी भ्रान्तिनाशिनी।
वेदत्रयी पराऽनन्दा तत्त्वार्थज्ञानमञ्जरी।।50।।
इत्येतानि जपेन्नित्यं नरो निश्चलमानसः।
ज्ञानसिद्धिं लभेन्नित्य तथान्ते परमं पदम्।।51॥
गंगा, गीता, सावित्री, सीता, सत्या, पतिव्रता, ब्रह्मावलि, ब्रहमविद्या, त्रिसंध्या, मुक्तिगेहिनी, अर्द्धमात्रा, चिदानन्दा, भवघ्नी, भ्रांतिनाशिनी, वेदत्रयी, परानन्दा, तत्वार्थज्ञानमञ्जरी-ये गीता के नाम हैं। जो आदमी निश्चल चित्त से इन नामों का नित्य जप करता है, वह ज्ञान और सिद्धि लाभ करके अन्त में परम पद को प्राप्त होता है।49,50,51
पाठेऽसमर्थ: सम्पूर्णे तदर्द्धे पाठमाचरेत्।
तदा गोदानजं पुण्यं लभते नात्र संशय:॥52॥
जो सम्पूर्ण गीता पाठ में असमर्थ है वह उसका अर्द्ध पाठ करे, उससे ही उसे निःसन्देह गोदान-जनित पुण्य लाभ होगा।52।
त्रिभागं पठमानस्तु सोमयागफलं लभेत्।
डंशं जपमानस्तु गंगास्नानफलं लभेत्॥53॥
जो गीता का तृतीयांश पाठ करेगा, वह सोमयाग का फल प्राप्त करेगा। जो गीता का षडांश पाठ करेगा उसे गंगा स्नान का फल प्राप्त होगा।53।
तथाध्यायद्वयं नित्यं पठमानो निरन्तरम।
इन्द्रलोकमवाप्नोति कल्पमेकं वसेत् ध्रुवम॥54॥
जो प्रतिदिन दो अध्याय निरन्तर पाठ करता है, वह एक कल्पकाल तक निश्चय इन्द्रलोक में वास करता हैं।54।
                                             एकमध्यायकं नित्यं पठते भक्तिसंयुत।
रुद्रलोकमवाप्नोति गणो भूत्वा वसेच्चिरम्॥55॥
           जो व्यक्ति भक्ति-संयुक्त होकर एक अध्याय भी पाठ करता है वह वह रुद्रलोक में गणत्व को प्राप्त होकर चिरकाल तक वास करता है।55।
अध्यायार्द्धञ्च पादं वा नित्यं यः पठते जना: ।
प्रप्नोती रविलोकं स मन्वन्तरसमा: शतम्॥56॥
जो अध्याय का अर्द्ध या एक पाद नित्य पाठ करता है, वह  शत, मन्वन्तर तक रविलोक में वास करता है।56।
गीताया: श्लोकदशकं सप्त पञ्च चतुष्टयम्।
त्रिद्वयेकमेकमर्ध वा श्लोकानां यः पठेन्नर:॥
चन्द्रलोकमवाप्नोति वर्षाणामयुतं तथा।।57॥
जो गीता के दश, सात, पाँच, चार तीन, दो, एक या अर्द्ध श्लोक भी पाठ करता है, वह दस हजार वर्ष तक चन्द्रलोक में वास करता है।57।
गीतार्थमेकपादञ्च श्लोकमध्यायमेव च।
स्मरंस्त्यक्त्वा जनो देहं प्रयाति परमं पदम्॥58॥
जो  गीता के एक अध्याय, एक पाद या एक श्लोक मात्र का अर्थ स्मरण करते-करते देहत्याग करता है, वह परम पद को प्राप्त करता है।58।
गीतार्थमपी पाठं वा श्रृणु यादन्तकालत:।
महापातकयुक्तोपि मुक्तिभागी भवेज्ज्न:॥59॥
 जो अन्तकाल में गीतार्थ या गीतापाठ श्रवण करता है, वह महापातकयुक्त होने पर भी मुक्ति का भागी होता है।59।
गीतापुस्तकसंयुक्त: प्राणाम् स्त्यकत्वा प्रयाति यः।
स वैकुण्ठमवाप्नोति विष्णुना सह मोदते॥60॥
जो गीता-पुस्तक संयुक्त होकर प्राण त्याग करता है, वह वैकुण्ठ धाम को प्राप्त होकर विष्णु के साथ परमानन्द में वास करता है।60।
गीताध्यायसमायुक्तो मृतो मानुषतां व्रजेत।
गीताभ्यास: पुन: कृत्वा लभते मुक्तिमुत्तमाम्॥
गीतेत्युच्चारसंयुक्तो म्रियमाणो गति लभेत।।61॥
           गीता के एक अध्याय का अर्थ समझकर जिसकी मृत्यु होती है, उसको फिर नीच योनि को प्राप्त नहीं होना पड़ता, वह पुनः मनुष्य योनि को प्राप्त कर उस देह से गीताभ्यास करके मुक्तिलाभ करता है। मृत्युकाल में गीता शब्द मात्र का उच्चारण करने पर भी उसको सद्गति प्राप्त होती है।61।
यद्यत् कर्म च सर्वत्र गीतापाठप्रकीर्तिमत्।
तत्तत् कर्म च निर्दोषम् भूत्वा पूर्णत्वमाप्नुयात्॥62
       गीता पाठ पूर्वक जो कर्म प्रारम्भ किए जाते हैं वे कर्म निर्दोष होकर पूर्ण फल प्रदान करने में समर्थ होते है। 62।
पितृनुद्दीश्य यः श्राद्धे गीतापाठम् करोति हि।
संतुष्टा: पितरस्तस्य निरयाद् यान्ति स्वर्गतिम॥63॥
           श्राद्धकाल में पितरों के उद्देश्य से गीतापाठ होने पर वे नित्य में हों तो वहाँ से स्वर्ग में गमन करते हैं। 63
                                 गीतापाठेन सन्तुष्टा: पितर: श्राद्धतर्पिता:।
पितृलोकं प्रयांन्त्येव पुत्राशीर्वादतत्परा:।।64॥
    श्राद्धतर्पित पितर लोग गीता पाठ से संतुष्ट होकर पुत्रों को आशीर्वाद देते हुए पितृलोक को गमन करते हैं।64।
                          गीतापुस्तकदानञ्च धेनुपुच्छसमन्वितम्।
कृत्वा च तद्दिने सम्यक् कृतार्थो जायते जन:॥65॥
       जो धेनुपुच्छसमन्वित गीतापुस्तक दान करता है, वह उसी दिन सम्यक रूप से कृतकृत्य हो जाता है।65।
पुस्तकं हेमसंयुक्त गीताया: प्रकरोति यः।
दत्वा विप्राय विदुषे जायते न पुनर्भवम ॥66॥
       जो सुवर्ण संयुक्त गीतापुस्तक विद्वान विप्र को दान करता है, उसका फिर पुनर्जन्म नहीं होता।66।
                              शतपुस्तकदानञ्च गीताया: प्रकरोति यः।
स याति ब्रह्मसदनं पुनरावृत्तिदुर्लभं॥67॥
             जो एक सौ गीतापुस्तक दान करता है वह ब्रह्मलोक को गमन करता है, उसकी पुनरावृत्ति की सम्भावना नहीं रहती।67।
                                गीतादान प्रभावेन सप्तकल्पमिता: समा:।
विष्णुलोकमवाप्यान्ते विष्णुना सह मोदते॥68॥
    गीतादान के प्रभाव से विष्णुलोक को प्राप्त होकर वह सप्तकल्प-काल पर्यन्त विष्णु के साथ आनन्दभोग करता है।68।
सम्यक् श्रुत्वा च गीतार्थं पुस्तकं यः प्रदापयेत्।
तस्मै प्रीत: श्रीभगवान् ददाति मानसेप्सितम॥69॥
 गीता का सम्यक् अर्थ श्रवण कर जो गीता पुस्तक दान करता है, उसके प्रति श्री भगवान प्रसन्न होकर उसके मन की अभिलषित वस्तु उसे प्रदान करते हैं।69।
देहं मानुषमाश्रित्य चातुर्वर्ण्येषु तु भारत।
न श्रृणोति न पठति  गीताममृतरूपिणीम्।।
हस्तात्त्यक्त्वामृतं प्राप्तं स नरो विषयमश्नुते॥70॥
      ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के कुल में मनुष्यदेह को प्राप्तकर जो मनुष्य इस अमृतरूपिणी गीता का श्रवण या पाठ नहीं करता,वह हाथ में स्थित अमृत का त्याग कर विषभक्षण करता है।70
जन: संसारदुःखार्तो गीताज्ञानं समालभेत्।
पीत्वा गीतामृतं लोके लब्ध्वा मोक्षं सुखी भवेत्।।71।।
संसार दुःख से पीड़ित मनुष्य गीताज्ञान प्राप्तकर तथा गीतामृत पान करके, संसार में समस्त पापों से विमुक्त होकर परम पद को प्राप्त हुए हैं।71।
गीतामाश्रित्य बहवो भूभुजो जनकादयः।
निर्धूतकल्मषा लोके गतास्ते परमं पदम्।।72।।
       जनकादि अनेक राजा गीता का आश्रय करके, संसार में समस्त पापों से विमुक्त होकर परम पद को प्राप्त हुए हैं।72।
गीतासु न विशेषोऽस्ति जनेषूच्चारकेषु च।
ज्ञानेष्वेव समग्रेषु समा ब्रह्मस्वरूपिणी।।73।।
        कोई गीतोक्त श्लोक उच्चारण करें या कोई गीतोक्त ज्ञान प्राप्त करे, इनके फल में कोई विशेषता नहीं हैं, क्योंकि ब्रह्मस्वरूपिणी गीता सब के लिए समभावापन्न है।73।
योSभिमानेन गर्वेण गीतानिन्दाम् करोति च।
स याति नरकं घोरं यावदाभूतसंप्लवम्।।74॥
        अहंकार से या गर्व से जो मूढ़ात्मा गीता की निन्दा करता है, वह महाप्रलय पर्यन्त घोर नरक में वास करता है।74।
अहंकारेण मूढ़ात्मा गीतार्थ नैव मन्यते।
कुम्भीपाकेषु पच्येत यावत् कल्पक्षयो भवेत्॥75॥
         जो मूढ़ात्मा अहंकारवश गीतार्थ नहीं जानना चाहता, वह कल्पक्षय-काल पर्यन्त कुम्भीपाक-नरक में पचता रहता है।75।
गीतार्थं वाच्यमानं यो न श्रृणोति समीपतः।
स शूकरभवां योनिमनेकामधिगच्छति॥76॥
           समीप में गीतापाठ होता है, यह देखकर भी जो आदमी अनादर करके नहीं सुनता, वह अनेक जन्म शूकर-योनि को प्राप्त होता है।76।
चौर्यं कृत्वा च गीताया: पुस्तकं य: समानयेत्।
न तस्य सफलं किंचित पठनञ्च वृथा भवेत॥77॥
        जो आदमी गीता-पुस्तक चुरा लाता है, उसको फल नहीं मिलता, उसका गीता ज्ञान पाठ व्यर्थ हो जाता है।77।
                                               यः श्रुत्वा नैव गीतार्थं मोदते परमार्थत: ।
नैव तस्य फलं लोके प्रमत्तस्य यथा श्रमः॥78॥
           जो आदमी गीतार्थ श्रवण करके परमार्थ लाभ में यत्नशील नहीं होता, उसका श्रम उन्मत्त के श्रम के समान निष्फल हो जाता है।78।
                                         गीतां श्रुत्वा हिरण्यञ्च भोज्यं पट्टाम्बरं तथा।
निवेदयेत् प्रदानार्थं प्रीतये परमात्मनः॥79॥
          गीता श्रवण करके स्वर्ण, भोज्य, पट्टवस्त्र आदि परमात्मा के प्रीत्यर्थ निवेदन करे।79।
वाचकं पूजयेद् भक्त्या द्रव्यवस्त्राद्युपस्करै:
अनेकैर्बहुधा प्रीत्या तुष्यतां भगवान हरि: ॥80॥
            गीता के व्याख्याकर्ता को भक्तिपूर्वक नाना प्रकार के दृव्य और वस्त्रादि प्रदान करके भगवान हरि ही सन्तुष्ट किए जाते हैं।80।
सूत उवाच
महात्म्यमेतद्गीताया: कृष्णप्रोक्तं पुरातनम्।
गीतान्ते पठते यस्तु तथोक्तफलभाग भवेत्॥81॥
             सूत बोले-श्री कृष्णोक्त गीता के इस माहात्म्य को जो आदमी गीता पाठ के अन्त में पाठ करता है,वह यथोक्त फल का भागी होता है।81।
         गीताया: पठनं कृत्वा माहात्म्यं नैव ये पठेत्।
वृथा पाठफलं तस्य श्रम एव उदाहृतः॥82॥
               गीता पाठ करके जो गीता के महात्म्य का पाठ नहीं करता,उसको गीता पाठ का फल प्राप्त नहीं होता,उसके केवल परिश्रम ही हाथ लगता है।82।

एतन्माहात्म्यसंयुक्तं गीतापाठं करोति यः।
श्रद्धया यः श्रृणोत्येव दुर्लभां गतिमाप्नुयात्।।83।।
                इस माहात्म्य के साथ जो गीता पाठ करता है तथा जो श्रद्धा पूर्वक श्रवण करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है।(83)
             श्रुत्वा गीतामर्थयुक्ताम् माहात्म्यं यः श्रृणोति च ।
तस्य पुण्यफलं लोके भवेत्सर्वसुखावहम्॥ 84॥
         इति श्रीवैष्णववीयतन्त्रसारे श्रीमद्भगवद्गीतामहात्म्यं समाप्तमम्।
श्रीकृष्णार्पणमस्तु
 जो अर्थ के साथ गीता श्रवण करके माहात्म्य भी श्रवण करता है, उसको सर्वसुखावह पुण्यफल प्राप्त होता है।84।
इति श्रीवैष्णववीयतन्त्रसार का श्रीमद्भगवद्गीतामहात्म्य समाप्त हुआ।

--------ॐ श्री हरि ॐ--------

Comments

  1. whta is the refference of this mahatmya,which puran or upnishad it appears ,can you plz mention ...thir.thapa5687@gmail.com

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