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*** प्रबुद्ध नर हुँकार भर *** निरा श मानव में मेरी यह कविता निश्चय ही उत्साह का प्राकट्य करेगी. प्रबुद्ध नर हुँकार भर , वीरता को पार कर , परिश्रम की आँधियों में , निराशा को तार-तार कर ।। 1 ।। भय असुर को मारकर , क्षण का इन्तजार कर , अभय की कोठरी मैं तू , निराशा को तार-तार कर।। 2 ।। नेत्र पट उघार कर , लक्ष्य से आँखें चार कर , स्वेद की प्रचण्ड आग में तू , निराशा को तार-तार कर।। 3 ।। स्व बुद्धि का प्रहार कर , आलस का त्याग कर , विवेक सिन्धु नाव मैं तू , निराशा को तार-तार कर।। 4 ।। अखण्ड यश की चाह कर , ईश की पुकार कर , त्याग के तीव्र प्रवाह में तू , निराशा को तार-तार कर।। 5 ।। मूढता की कुक्षि फाड़कर , ज्ञान का प्रबल वार कर , धर्म के इस युद्ध में तू , निराशा को तार-तार कर।। 6 ।। पौरुष को संभाल कर , संयम को साकार कर , शक्ति के संचार मैं तू , निराशा को तार-तार कर ॥7॥ श्रेष्ठता का भाव कर , सत्य को आधार कर , दृष्टि के तेज में तू , निराशा को तार-तार कर ॥8॥ आशा का अंगीकार कर , धैर्य का व्यवहार कर , साहस के कुम्भ में तू , निराशा को त
निर्भीक पथिक= सदा विजय निर्भीक पथिक कंटक पथ पर बढ़कर संत्रस्त नहीं होता है , क्षुदा भी उसका करती क्या ? जब वह लक्ष्य साध लेता है , कंटक पथ परवर्तित हो जाता है फूलों की पंखुड़ियों में , सदा विजय नतमस्तक होती है , उस नर के चरणों में ॥1॥ लक्ष्य वृहद हो या लघु हो , धैर्य कभी नहीं कम होता है , वाद क्षेत्र में यदि घिर जाने पर , प्रतिवाद कभी नहीं कम होता है , स्पर्श न करती निराशा उसको , विषम क्षण की घड़ियों में , सदा विजय नतमस्तक होती है , उस नर के चरणों में ॥2॥ हार विजय में परिवर्तित होकर गले में हार डाल देती है , बढ़कर वह उस मानव के हित नव पुरुषार्थ भैट देती है , पुरुषार्थ की आग उभर आती है , उसकी धमनियों में , सदा विजय नतमस्तक होती है , उस नर के चरणों में ॥3॥ पथ पर रखता है जब वह पग , लक्ष्य की ही प्रत्याशा में , लक्ष्य-लक्ष्य ही देखे वह , जब विजय की ही अभिलाषा में , विजय खोलती अवरुद्ध मार्ग को , जुड़ता इतिहास की कड़ियों में सदा विजय नतमस्तक होती है , उस नर के चरणों में ॥4॥